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अ॒भि त्वा॒ नक्ती॑रुष॒सो॑ ववाशि॒रेऽग्ने॑ व॒त्सं न स्वस॑रेषु धे॒नवः॑। दि॒वइ॒वेद॑र॒तिर्मानु॑षा यु॒गा क्षपो॑ भासि पुरुवार सं॒यतः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhi tvā naktīr uṣaso vavāśire gne vatsaṁ na svasareṣu dhenavaḥ | diva ived aratir mānuṣā yugā kṣapo bhāsi puruvāra saṁyataḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒भि। त्वा॒। नक्तीः॑। उ॒षसः॑। व॒वा॒शि॒रे॒। अग्ने॑। व॒त्सम्। न। स्वस॑रेषु। धे॒नवः॑। दि॒वःऽइ॑व। इत्। अ॒र॒तिः। मानु॑षा। यु॒गा। आ। क्षपः॑। भा॒सि॒। पु॒रु॒ऽवा॒र॒। स॒म्ऽयतः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:2» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:20» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य प्रदीप्त विद्वान् जन ! (स्वसरेषु) गोष्ठों में (वत्सम्) बछड़े को (धेनवः) गौयें (न) जैसे रंभवाती हैं वैसे (नक्तीः) रात्रि और (उषसः) दिन (त्वा) आपको (अभि ववाशिरे) सब ओर से शब्दायमान करते है। अर्थात् प्रत्येक काम के नियत समय में आप अपने शब्दादि व्यवहार को प्राप्त होते हो। हे (पुरुवार) बहुतों को स्वीकार करने योग्य ! आप (दिवइव) सूर्यप्रकाश के समान अपने प्रकाश से (इत्) ही (अरतिः) सर्व व्यवहारों की प्राप्ति करानेवाले (मानुषा) मनुष्य-सम्बन्धी (युगा) युगवर्षों को और (क्षपः) निवास हेतु रात्रि समयों को (संयतः) संयम किये हुए (आ भासि) अच्छे प्रकार प्रकाशमान होते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे गौयें अपने बछड़ों को प्राप्त होतीं, वैसे काल-विभाग परिश्रमी विद्वान् जन को प्राप्त होते हैं। जिस कारण उसके सब कार्य नियमयुक्त काल से सिद्ध होते हैं। आलसी जनों के काम कभी भी नियत समय पर नहीं होते। परिश्रमी विद्वान् जन रात्रि के समय को भी अपने कार्य का समय मानकर जैसा चाहते वैसे समय पर कार्य किया करते हैं और मनुष्यसम्बन्धी पूर्णायु को प्राप्त होते हैं किन्तु परिश्रम से आयु की हानि को नहीं प्राप्त होते ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने स्वसरेषु वत्सं धेनवो न नक्तिरुषसस्त्वाभि ववाशिरे। हे पुरुवार त्वं दिवइवेदरतिर्मानुषा युगा क्षपश्च संयत आ भासि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभि) अभितः (त्वा) त्वाम् (नक्तीः) रात्रीः (उषसः) दिनानि (ववाशिरे) शब्दायन्ते (अग्ने) अग्निरिव प्रदीप्त विद्वन् (वत्सम्) (न) इव (स्वसरेषु) गोष्ठेषु (धेनवः) गावः (दिवइव) सूर्यप्रकाशादिव (इत्) एव (अरतिः) प्रापकः (मानुषा) मनुष्याणामिमानि (युगा) युगानि वर्षाणि (क्षपः) निवासहेतवः (भासि) (पुरुवार) बहुभिर्वरणीय (संयतः) सम्यङ् नियमितः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा गावः स्ववत्सान् प्राप्नुवन्ति तथा कालविभागा विद्वांसं परिश्रमिणं प्राप्नुवन्ति। यतस्तस्य सर्वाणि कार्याणि नियतकालेन संपद्यन्ते। अलसानां कार्याणि कदाचिदपि यथासमयं न भवन्ति परिश्रमिणो विद्वांसो रात्रिसमयानपि कार्य्यकालमाश्रित्य यथेष्टसमयं कार्य्यं कुर्वन्ति। तथा मानुषसम्बन्धि पूर्णायुर्लभन्ते न तु परिश्रमेणायुषो हानिमाप्नुवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशा गायी त्यांच्या वासरांना जवळ करतात, तसे परिश्रमाने विद्वान लोक काळाच्या विभागांना प्राप्त करतात. त्यामुळे त्यांचे कार्य नियमपूर्वक होते. आळशी लोकांचे काम कधीच नियमितपणे होत नाही. परिश्रमी विद्वान रात्रीची वेळही आपल्या कार्याची वेळ समजून कार्य करतात. अशी माणसे दीर्घायू होतात. परिश्रम केल्यामुळे त्यांच्या आयुष्याची हानी होत नाही. ॥ २ ॥